Sunday, December 21, 2014

पंछी क्यूँ परदेसी हो गए, अब अपने ही गाँव से

नदी किनारे पीपल बाबा पूछे अपनी छाँव से
पंछी क्यूँ परदेसी हो गए, अब अपने ही गाँव से

चहल पहल रहती थी कल तक, आज वहाँ सन्नाटा है
मेरी हरी-भरी शाखों को किस जालिम ने काटा है
रिश्ता छूट गया नदिया का, जैसे टूटी नाव से
नदी किनारे पीपल बाबा पूछे अपनी छाँव से,
पंछी क्यूँ परदेसी हो गए, अब अपने ही गाँव से

पेट की खातिर शहरों की ओर उड़ानें होती हैं
थकी हुई पगडण्डी अपनी वीरानी पर रोती है
    छप्पर और खपरेलों में दिखते हैं गहरे घाव से,
      नदी किनारे, पीपल बाबा पूछे अपनी छाँव से
        पंछी क्यूँ परदेसी हो गए, अब अपने ही गाँव से

        पहले तीज त्योहारों पर हर बार सवारी जाती थी
        उसके बाद तो भूली भटकी चिट्ठी ही आ पाती थी
        अब मेहमान नहीं आते काले कौवे की कांव से
        नदी किनारे पीपल बाबा, पूंछे अपनी छाँव से
        पंछी क्यूँ परदेसी हो गए खुद अपने ही गाँव से

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