बहुत कम ही ऐसे मौके होते हैं की फिल्म देखने जाएँ और मूवी हॉल में गिनती के 10 लोग हों. या तो फिल्म किसी नए नवेले की है या साथ में कोई बड़ी फिल्म लग रही है. ऐसा ही कुछ हुआ जब शाहिद देखने गए. बॉस जैसी intellectual फिल्म पहले ही देख चुके थे. चलो ऊपर की टिकेट मिल गयीं थीं लेकिन क्या पता था की जैसे ही हॉल में घुसेंगे, झाड़ू मरने वाली कहेगी " दो ही लोग फिलम देखने आये हैं ?" ख़ैर हम दोनों बेशर्मों ने देखा की कोई नहीं है हॉल में ,गए वापिस टिकेट काउंटर पे और अपनी पैसे वापिस लेली. हम कुछ बेवकूफ लोगों की वजह से शो थोड़े ही चलता..!हॉल मैनेजमन्ट भी INDIAN है भाई.
बाहर निकले और हमारा दोस्त एक और दोस्त को लेने चला गया, हम मॉल में रहे और बेंच पे बैठे ही थे की एक लड़का हमारे पास आकर बैठ गया. बातूनी ठहरे हम , शुरू हो गयी गुफ्तगू. अपनी कहानी सुनाने लग गया वो. उसने अपने जेल जाने , जेल से निकलने सब की कहानी सुनाई . जितनी सच्चाई उसकी आँखों में थी, उतनी ही ज़िद और द्रढ़ता उसकी कहानी में. मुझे लग रहा था जैसे मैं खौफ, डर, सच्चाई , हिम्मत, उम्मीद से सजे किसी झूले में हिंडोले खा रहा हूँ. किस तरह उसने 17 बेगुनाहों को बचाया वो काबिलेतारीफ था, वहीँ एक आम आदमी होकर भी व्यवस्था पे उसका भरोसा और उसका कहना की "देर लगती है ,लेकिन काम हो जाता है " ने मुझे विवश कर दिया था नंबर लेने को उसका .आज के जमाने में इतना हिम्मती इंसान कौन हो सकता है जो ये कहे की " की किसी इंसान का नाम नाम फहीम है ,ये काफी है उसके पकडे जाने के लिए ?" ................वकील था पेशे से लेकिन नाम नहीं बताया उसने,बस ये बोल के चला गया "जो फिल्म आपने छोड़ी है ज़रूर देखना,लोग आयेंगे देखने ,भीड़ बढ़ेगी ,देर लगेगी लेकिन कुछ तो चलेगी ".......
उस इंसान की शक्ल राजकुमार यादव से मिल रही थी,ना ...ये यादव मुलायम यादव का कोई रिश्तेदार नहीं, रागिनी MMS,कई पो छे जैसी फिल्मों में हीरो रह चूका है.शक्ल से आम आदमी लगता है और हीरो भी.क्यूँ ,आखिर आम आदमी ही तो हीरो ही होता है ? जितने कमाल से हिंदी सिनेमा के इस नई उम्मीद(शाहिद कपूर से कई गुना बेहतर) ने शाहिद आज़मी के प्यार,दर,निर्भयता जैसे भाव को अपने चहरे पे जीया है,.....ताली बजाने लायक था . लेखक की सधी हुई कहानी, निर्देशक की SUBJECT पे पकड़ ने इसे बेहतरीन फिल्म बना दिया. मोहम्मद जीशान(राँझना के मुरारी) भी हैं, और वो भी बड़े भाई के किरदार में जमें हैं. तिग्मांशु धुलिया (रामधीर ऑफ़ GOW) का किरदार आते ही विवश कर देता है सीटी बजाने को. और कलाकारों का भी अभिनय अच्छा है और संगीत के नाम पे एक ही गाना है. शाहिद हमारी न्यायिक प्रणाली का एक आइना दिखाता है, ये आइना हमने कई बार देखा है दामिनी, JOLLY LLB वगरह कई फिल्मों में लेकिन यहाँ एक ख़ास मुद्दे पर " उसका बेगुनाह आतंकवादियों के लिए खड़ा होना "......जू अपने आप में बड़ा controversial है.
वैसे अगर धीमी फिल्मे पसंद नहीं तो avoid करें, वर्ना साल की इस बेहतरीन जाबांज़ सिनेमा को MISS करना गुनाह होगा. कम लोग होंगे हॉल में, लेकिन शाहिद से मिलिएगा ज़रूर. MUST WATCH!
बाहर निकले और हमारा दोस्त एक और दोस्त को लेने चला गया, हम मॉल में रहे और बेंच पे बैठे ही थे की एक लड़का हमारे पास आकर बैठ गया. बातूनी ठहरे हम , शुरू हो गयी गुफ्तगू. अपनी कहानी सुनाने लग गया वो. उसने अपने जेल जाने , जेल से निकलने सब की कहानी सुनाई . जितनी सच्चाई उसकी आँखों में थी, उतनी ही ज़िद और द्रढ़ता उसकी कहानी में. मुझे लग रहा था जैसे मैं खौफ, डर, सच्चाई , हिम्मत, उम्मीद से सजे किसी झूले में हिंडोले खा रहा हूँ. किस तरह उसने 17 बेगुनाहों को बचाया वो काबिलेतारीफ था, वहीँ एक आम आदमी होकर भी व्यवस्था पे उसका भरोसा और उसका कहना की "देर लगती है ,लेकिन काम हो जाता है " ने मुझे विवश कर दिया था नंबर लेने को उसका .आज के जमाने में इतना हिम्मती इंसान कौन हो सकता है जो ये कहे की " की किसी इंसान का नाम नाम फहीम है ,ये काफी है उसके पकडे जाने के लिए ?" ................वकील था पेशे से लेकिन नाम नहीं बताया उसने,बस ये बोल के चला गया "जो फिल्म आपने छोड़ी है ज़रूर देखना,लोग आयेंगे देखने ,भीड़ बढ़ेगी ,देर लगेगी लेकिन कुछ तो चलेगी ".......
उस इंसान की शक्ल राजकुमार यादव से मिल रही थी,ना ...ये यादव मुलायम यादव का कोई रिश्तेदार नहीं, रागिनी MMS,कई पो छे जैसी फिल्मों में हीरो रह चूका है.शक्ल से आम आदमी लगता है और हीरो भी.क्यूँ ,आखिर आम आदमी ही तो हीरो ही होता है ? जितने कमाल से हिंदी सिनेमा के इस नई उम्मीद(शाहिद कपूर से कई गुना बेहतर) ने शाहिद आज़मी के प्यार,दर,निर्भयता जैसे भाव को अपने चहरे पे जीया है,.....ताली बजाने लायक था . लेखक की सधी हुई कहानी, निर्देशक की SUBJECT पे पकड़ ने इसे बेहतरीन फिल्म बना दिया. मोहम्मद जीशान(राँझना के मुरारी) भी हैं, और वो भी बड़े भाई के किरदार में जमें हैं. तिग्मांशु धुलिया (रामधीर ऑफ़ GOW) का किरदार आते ही विवश कर देता है सीटी बजाने को. और कलाकारों का भी अभिनय अच्छा है और संगीत के नाम पे एक ही गाना है. शाहिद हमारी न्यायिक प्रणाली का एक आइना दिखाता है, ये आइना हमने कई बार देखा है दामिनी, JOLLY LLB वगरह कई फिल्मों में लेकिन यहाँ एक ख़ास मुद्दे पर " उसका बेगुनाह आतंकवादियों के लिए खड़ा होना "......जू अपने आप में बड़ा controversial है.
वैसे अगर धीमी फिल्मे पसंद नहीं तो avoid करें, वर्ना साल की इस बेहतरीन जाबांज़ सिनेमा को MISS करना गुनाह होगा. कम लोग होंगे हॉल में, लेकिन शाहिद से मिलिएगा ज़रूर. MUST WATCH!
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