Wednesday, September 11, 2013

SHERO-SHAYARI :A Short story

दरवाज़ा खोलते ही शेर मारना,और उसके पलटवार में हमारे पापा का एक और शेर ,बस..... ,अब्बास चाचा की एंट्री हमारे घर में कुछ यूँ होते थी ...शहर के कोने में कहीं भी नुमाइश लगी हो ,हमें और हमारी बहन को उनके बच्चों के साथ ले जाना और वहाँ जी भर के झूले झूलना ,खाना पीना कैसे भूल सकता हूँ वो दिन ....

अभी भी जेहन में हैं, पापा और अब्बास चचा का sunday को VCR पे बकरा किश्तों पे या उमर शरीफ का नाटक देखना और सब कुछ भूल कर बावलों की तरह हंसना .उनका ईद पे सेवई की डोलची लेकर आना और बकर-ईद पे कहना "कहाँ लगे पड़े हो भाभी जान ,हमारे हाथ का गोश्त खाओगे ,उंगलियाँ चाटोगे " अभी तक उनकी याद दिलाता है.शायद आदत थी या प्यार ,पता नहीं ,जब आते थे ,तो अगर घर में वो आधे घंटे बैठते थे तो पौन घंटा बाहर गेट पे जाते समय,और वो ही चर्चा शायद बड़े लोगो का ज्यादा पसंद भी आती है...अब्बास चचा हमारे पापा के कॉलेज के दोस्त थे ,फिर हमारे पड़ोस में ही रहते थे ,पापा के महकमें में ही आ गए थे,लेकिन फिर" मुजफ्फरनगर " ट्रान्सफर हो गया .दूरी बढ़ गयी थी ,लेकिन 40 -45 km बाइक पे कहाँ पता चलता था इतना रास्ता.कभी हम वहां ,तो कभी वो इधर .birthday ,anniversary पे उनका पूछना ,क्या है आज दावत में ?दशेहरे मेले में साथ जाना और हमे गोद में बैठाकर कहना .."अरे हमारे जैसी दाढ़ी रखोगे ??खूब मेहनत करनी पड़ेगी ...हाहाहा ".....
ख़ैर कल ही उनके बेटे का वाशिंगटन से फोन आया की क्या हाल हैं अब्बू का ?

मैंने कुछ नहीं कहा ,,आखिर चाचा ने बताने के लिए मना किया था ..शायद उसको पता चल गया था कर्फ्यू के बारे में ..बताता भी क्या ,की घर से 7 दिन से बाहर नहीं निकले हैं ....

मेरे पिताजी जहाँ अपने बाकी दोस्तों के साथ विमर्श करते हुए "शांति रखनी चाहिए " "सारे मुसलमान एक जैसे नहीं होते " "बहुत कुबनियाँ हैं उनकी भी " "एक दुसरे पे आरोप मढने से क्या होगा ? " "हमारे यहाँ भी तो विहिप है !! " जैसे जुमले देकर उन्हें समझाने का असफल प्रयास कर रहे थे,वहीँ उनके दोस्त उन्हें राजनीतिक जमला पहनाकर किसी पार्टी का प्रचार सा कर रहे थे ....
लेकिन आज जब कर्फ्यू खुला ,तो पिताजी की टेंशन दूर हुई ,वर्ना रोज़ दिन में 3 बार फोन घुमाते थे , हाल पूछते थे वो भी बिना शेर कहे,बहुत अजीब लगता थे सुनने में ....

आख़िर दोस्ती है,कोई सियासी पार्टी थोड़े ही ....!
लेकिन फिर भी किसी अनाम की ये पंक्तियाँ याद आजाती है......
"न हिन्दू मरा है न मुसलमान मरा है, जिंदा है सियासत
मगर इंसान मरा है"..........................................

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